याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
चंद लम्हों को तेरे आने से
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
इक ज़रा रसमसा के सोते में
एक कम-सिन हसीन लड़की का
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
अपने आईना-ए-तमन्ना में
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में