इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
शर्म दहशत झिझक परेशानी
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उस का ये था
साल-हा-साल और इक लम्हा
क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
चाँद की पिघली हुई चाँदी में
मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
उस के और अपने दरमियान में अब
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल