वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ