वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से