तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न समझा गया अब्र क्या देख कर
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब