अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को