ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
है ख़बर गर्म उन के आने की
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक