क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम