आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब