रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
मौत का एक दिन मुअय्यन है
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को