बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए