ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
फ़रियाद की कोई लय नहीं है
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो