ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की