दिल लगाने को न समझो दिल-लगी
दुश्मनों की जान पर बन जाएगी
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बा'द तौबा के भी है दिल में ये हसरत बाक़ी
लब पे कुछ बात आई जाती है
दिल्ली छुटी थी पहले अब लखनऊ भी छोड़ें
बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते
दुबकी हुई थी गुरबा-सिफ़त ख़्वाहिश-ए-गुनाह
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
देखा है मुझे अपनी ख़ुशामद में जो मसरूफ़
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
टलना था मेरे पास से ऐ काहिली तुझे
ये फ़क़त आप की इनायत है