है रज़्म सरापा तो ज़बाँ और ही है
और बैन के माबैन बयाँ और ही है
किस दर्जा बुलंद है तेरी फ़िक्र 'दबीर'
कहती है ज़मीं ये आसमाँ और ही है
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ऐ ख़िज़्र के रहबर मुझे गुमराह न कर
इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
आफ़ाक़ से उस्ताद-ए-यगाना उठ्ठा
हर चश्म से चश्मे की रवानी हो जाए
इस दर पे हर एक शादमाँ रहता है
दरगाह-ए-अलम-दार से बहबूदी है
क्या क़ामत-ए-अहमद ने ज़िया पाई है
अदना से जो सर झुकाए आला वो है
या शाह-ए-नजफ़ थाम लो इस किश्वर को
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा
हम-शान-ए-नजफ़ न अर्श-ए-अनवर ठहरा
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है