सुग़रा का मरज़ कम न हुआ दरमाँ से
आख़िर हुई बीमार तप-ए-हिज्राँ से
तबदीर की जा नोश किया ज़हर-ए-अजल
पा-शूई के बदले हाथ धोए जाँ से
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हर चश्म से चश्मे की रवानी हो जाए
इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
आहों से अयाँ बर्क़-फ़िशानी हो जाए
या शाह-ए-नजफ़ थाम लो इस किश्वर को
दरगाह-ए-अलम-दार से बहबूदी है
मशहूर-ए-जहाँ है दास्तान-ए-शीरीं
आफ़ाक़ से उस्ताद-ए-यगाना उठ्ठा
फिर चर्ख़ पर आसमान-ए-पीर आया है
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा
परवाने को धुन शम्अ को लौ तेरी है
है रज़्म सरापा तो ज़बाँ और ही है