परवाने को धुन शम्अ को लौ तेरी है
आलम में हर एक को तग-ओ-दौ तेरी है
मिसबाह ओ नुजूम आफ़्ताब ओ महताब
जिस नूर को देखता हूँ ज़ौ तेरी है
Ahmad Faraz
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दरगाह-ए-अलम-दार से बहबूदी है
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा
इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
आहों से अयाँ बर्क़-फ़िशानी हो जाए
सुग़रा का मरज़ कम न हुआ दरमाँ से
या शाह-ए-नजफ़ थाम लो इस किश्वर को
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है
हर चश्म से चश्मे की रवानी हो जाए
बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है
इस बज़्म में अर्बाब-ए-शुऊर आए हैं
मशहूर-ए-जहाँ है दास्तान-ए-शीरीं
फिर चर्ख़ पर आसमान-ए-पीर आया है