ख़फ़ा भी हो के जो देखे तो सर निसार करूँ
शम्अ' रौशन जिस्म-ए-फ़ानूस-ए-ख़याली में है आज
राह से दैर-ओ-हरम की है जो कू-ए-यार में
मेरा शाहिद वो हमें अय्यार आता है नज़र
दैर से काबा गए काबा से माबदगाह में
नहीं है मुझ को ऐ जमशेद तेरे जाम से काम
कल हम से मुलाक़ात में वो यार जो की बहस
सुनते ही दिल हो गया उस यार का असरार मस्त
ब'अद मुद्दत गर्दिश-ए-तस्बीह से 'मिस्कीं' हमें
माह-रू याँ हज़ार को देखा
तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़
किसी का एक है दुश्मन तो दोस्त-दार है एक