बुला रहा था कोई चीख़ चीख़ कर मुझ को
कुएँ में झाँक के देखा तो मैं ही अंदर था
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कतबा
मेरे सामने
उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीस
नींद रातों की उड़ा देते हैं
ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं
अचानक तिरी याद का सिलसिला
चाँद की कगर रौशन
इस शहर में कहीं पे हमारा मकाँ भी हो
एक शाम बाग़ में
सफ़र में सोचते रहते हैं छाँव आए कहीं
घर में सामाँ तो हो दिलचस्पी का
अब न 'ग़ालिब' से शिकायत है न शिकवा 'मीर' का