ले शब-ए-वस्ल-ए-ग़ैर भी काटी
तू मुझे आज़माएगा कब तक
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ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
क्या जाने क्या लिखा था उसे इज़्तिराब में
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
इस वुसअत-ए-कलाम से जी तंग आ गया
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील
अदम में रहते तो शाद रहते उसे भी फ़िक्र-ए-सितम न होता
मोमिन मैं अपने नालों के सदक़े कि कहते हैं
तासीर सब्र में न असर इज़्तिराब में