ख़त-नवेसी ये है तो मुश्ताक़ो
हाथ इक दिन क़लम तुम्हारे हैं
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मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
गुलशन-ए-इश्क़ का तमाशा देख
आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
ज़ुल्फ़-ए-पुर-पेच के सौदे में अजब क्या इम्काँ
कौन दरिया-ए-मोहब्बत से उतर सकता है पार
क्या ख़बर है हम से महजूरों की उन को रोज़-ए-ईद
ये कौन सा परवाना मुआ जल के लगन में
किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ
तेग़-ए-पुर-ख़ूँ वो अगर धोए कनार-ए-दरिया
हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता
आ के सज्जादा-नशीं क़ैस हुआ मेरे बा'द
इस्लाम का सुबूत है ऐ शैख़ कुफ़्र से