कौन दरिया-ए-मोहब्बत से उतर सकता है पार
कश्ती-ए-फ़रहाद आख़िर कोह से टकरा गई
Rahat Indori
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लैलतुल-क़द्र है हर शब उसे हर रोज़ है ईद
अपने मजनूँ की ज़रा देख तो बे-परवाई
है कौन शय जिस की ज़िद नहीं है जहाँ ख़ुशी है मलाल भी है
हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब
लुत्फ़ तब अमर्द-परस्ती का है बाग़-ए-ख़ुल्द में
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
निकला न दाग़-ए-दिल से हमारा तो कोई काम
ख़त-नवेसी ये है तो मुश्ताक़ो
किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त