लैलतुल-क़द्र है हर शब उसे हर रोज़ है ईद
जिस ने मय-ख़ाने में माह-ए-रमज़ाँ देखा है
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है कौन शय जिस की ज़िद नहीं है जहाँ ख़ुशी है मलाल भी है
किस तरह नाला करे बुलबुल चमन की याद में
न पूछ हिज्र में जो कुछ हुआ हमारा हाल
निगाह-ए-यार हम से आज बे-तक़सीर फिरती है
सताना क़त्ल करना फिर जलाना
इस्लाम का सुबूत है ऐ शैख़ कुफ़्र से
लुत्फ़ तब अमर्द-परस्ती का है बाग़-ए-ख़ुल्द में
ख़त-नवेसी ये है तो मुश्ताक़ो
वो सुबह को इस डर से नहीं बाम पर आता
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
बा'द मरने के मिरी क़ब्र पे आया 'ग़ाफ़िल'
इक बोसा माँगता हूँ मैं ख़ैरात-ए-हुस्न की