इक बोसा माँगता हूँ मैं ख़ैरात-ए-हुस्न की
दो माल की ज़कात कि दौलत ज़ियादा हो
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सताना क़त्ल करना फिर जलाना
आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
तेग़-ए-पुर-ख़ूँ वो अगर धोए कनार-ए-दरिया
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
बा'द मरने के मिरी क़ब्र पे आया 'ग़ाफ़िल'
क्या ख़बर है हम से महजूरों की उन को रोज़-ए-ईद
न पूछ हिज्र में जो कुछ हुआ हमारा हाल
तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मोहतसिब
निगाह-ए-यार हम से आज बे-तक़सीर फिरती है
मरते दम ओ बेवफ़ा देखा तुझे
ये कौन सा परवाना मुआ जल के लगन में