तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मोहतसिब
तोडूँगा तेरे सर से पियाला शराब का
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वो मेरा दर्द-ए-दिल क्या जानते हैं
परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को
हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर
किसी के मैं लिबास-ए-आरियत को क्या समझता हूँ
शाना तो छुटा ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से उलझ कर
आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
वो आइना-तन आईना फिर किस लिए देखे
मरते दम ओ बेवफ़ा देखा तुझे
आ के सज्जादा-नशीं क़ैस हुआ मेरे बा'द
क्या ख़बर है हम से महजूरों की उन को रोज़-ए-ईद
हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब