हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर
अपने रहने का मकाँ दे डालते मज़दूर को
Rahat Indori
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गुलशन-ए-इश्क़ का तमाशा देख
परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को
शाना तो छुटा ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से उलझ कर
अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
बा'द मरने के मिरी क़ब्र पे आया 'ग़ाफ़िल'
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
दुश्मन के काम करने लगा अब तो दोस्त भी
सताना क़त्ल करना फिर जलाना
कौन दरिया-ए-मोहब्बत से उतर सकता है पार
गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त