परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को
बुलबुल के आगे फूल न तोड़ा गुलाब का
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सितारे गुम हुए ख़ुर्शीद निकला
लैलतुल-क़द्र है हर शब उसे हर रोज़ है ईद
निगाह-ए-यार हम से आज बे-तक़सीर फिरती है
दुश्मन के काम करने लगा अब तो दोस्त भी
गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त
क्या ख़बर है हम से महजूरों की उन को रोज़-ए-ईद
कूचा-ए-जानाँ मैं यारो कौन सुनता है मिरी
फ़रियाद की आती है सदा सीने से हर दम
क्यूँकर ये तुफ़-ए-अश्क से मिज़्गाँ में लगी आग
अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
ये कौन सा परवाना मुआ जल के लगन में