अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
बना देती क़बा वो चाक कर के पर्दा महमिल का
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जी में आता है मय-कशी कीजे
हर कोई उस का ख़रीदार हुआ चाहता है
बरसों ख़याल-ए-यार रहा कुछ खिचा खिचा
अपने मजनूँ की ज़रा देख तो बे-परवाई
मरते दम ओ बेवफ़ा देखा तुझे
चशम-ए-ख़ूँबार सा बरसे न कभू पानी एक
ख़त-नवेसी ये है तो मुश्ताक़ो
तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मोहतसिब
ज़ुल्फ़-ए-पुर-पेच के सौदे में अजब क्या इम्काँ
आशिक़ को न ले जाए ख़ुदा ऐसी गली में
आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को