अपने मजनूँ की ज़रा देख तो बे-परवाई
पैरहन चाक है और फ़िक्र सिलाने की नहीं
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तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मोहतसिब
कूचा-ए-जानाँ मैं यारो कौन सुनता है मिरी
जी में आता है मय-कशी कीजे
चशम-ए-ख़ूँबार सा बरसे न कभू पानी एक
इक बोसा माँगता हूँ मैं ख़ैरात-ए-हुस्न की
कौन दरिया-ए-मोहब्बत से उतर सकता है पार
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
वो मेरा दर्द-ए-दिल क्या जानते हैं
हर कोई उस का ख़रीदार हुआ चाहता है
अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
सताना क़त्ल करना फिर जलाना
हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर