कूचा-ए-जानाँ मैं यारो कौन सुनता है मिरी
मुझ से वाँ फिरते हैं लाखों दाद और बे-दाद में
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बरसों ख़याल-ए-यार रहा कुछ खिचा खिचा
क्यूँकर ये तुफ़-ए-अश्क से मिज़्गाँ में लगी आग
लुत्फ़ तब अमर्द-परस्ती का है बाग़-ए-ख़ुल्द में
ये कौन सा परवाना मुआ जल के लगन में
तेज़ रखियो सर-ए-हर-ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूँ
चशम-ए-ख़ूँबार सा बरसे न कभू पानी एक
गिल है आरिज़ तो क़द्द-ए-यार दरख़्त
शाना तो छुटा ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से उलझ कर
हर कोई उस का ख़रीदार हुआ चाहता है
जलवा-ए-बर्क़-ए-कम-नुमा हैं हम
जी में आता है मय-कशी कीजे
इस्लाम का सुबूत है ऐ शैख़ कुफ़्र से