आशिक़ को न ले जाए ख़ुदा ऐसी गली में
झाँके न जहाँ रौज़न-ए-दीवार से कोई
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आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
गुलशन-ए-इश्क़ का तमाशा देख
जी में आता है मय-कशी कीजे
सताना क़त्ल करना फिर जलाना
आ के सज्जादा-नशीं क़ैस हुआ मेरे बा'द
तेज़ रखियो सर-ए-हर-ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूँ
जलवा-ए-बर्क़-ए-कम-नुमा हैं हम
है कौन शय जिस की ज़िद नहीं है जहाँ ख़ुशी है मलाल भी है
इस्लाम का सुबूत है ऐ शैख़ कुफ़्र से
परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को
हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता
कूचा-ए-जानाँ मैं यारो कौन सुनता है मिरी