निकला न दाग़-ए-दिल से हमारा तो कोई काम
न वो चराग़-ए-दैर न शम-ए-हरम हुआ
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आ के सज्जादा-नशीं क़ैस हुआ मेरे बा'द
कूचा-ए-जानाँ मैं यारो कौन सुनता है मिरी
जलवा-ए-बर्क़-ए-कम-नुमा हैं हम
तेग़-ए-पुर-ख़ूँ वो अगर धोए कनार-ए-दरिया
परवाने के हुज़ूर जलाया न शम्अ' को
मर्तबा माशूक़ का आशिक़ से बाला-दस्त है
हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर
क्यूँकर ये तुफ़-ए-अश्क से मिज़्गाँ में लगी आग
दुश्मन के काम करने लगा अब तो दोस्त भी
जी में आता है मय-कशी कीजे
हर उ'ज़्व-ए-बदन एक से है एक तिरा ख़ूब
तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मोहतसिब