जानता हूँ एक ऐसे शख़्स को मैं भी 'मुनीर'
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
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दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
इम्तिहाँ हम ने दिए इस दार-ए-फ़ानी में बहुत
आ गई याद शाम ढलते ही
जी ख़ुश हुआ है गिरते मकानों को देख कर
रात की अज़िय्यत
कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
जो देखे थे जादू तिरे हात के
आइना अब जुदा नहीं करता
उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है