सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
एक आँधी जो सर-ए-शाम चली है मुझ में
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ज़ेहन में याद के घर टूटने लगते हैं 'शहाब'
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
कैसे पता चलेगा अगर सामना न हो
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
हम में और परिंदों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है