बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
अब यूँ मिला है जैसे वो पहले मिला न हो
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पुराने घर में नया घर बसाना चाहता है
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
धूप सी उम्र बसर करना है
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर