इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
घर में तिरी सूरत के सिवा कुछ भी नहीं है
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ज़ेहन में याद के घर टूटने लगते हैं 'शहाब'
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
धूप सी उम्र बसर करना है
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
वो तमाशा आप की जादू-बयानी से हुआ