दिल सँभाले नहीं सँभलता है
जैसे उठ कर अभी गया है कोई
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इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
वो तमाशा आप की जादू-बयानी से हुआ
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
पुराने घर में नया घर बसाना चाहता है
दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा