धूप सी उम्र बसर करना है
एक दीवार को सर करना है
आँख तो सिर्फ़ शहादत देगी
दिल को तस्दीक़-ए-सहर करना है
अब फ़सीलों पे उगाना है गुलाब
फ़ौज को शहर-बदर करना है
सिर्फ़ जुगनू सा चमकना है 'शहाब'
कब मुझे कार-ए-ख़िज़र करना है
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बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई