इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
इक ग़ज़ल आसमान से उतरे
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फूल ने मुरझाते मुरझाते कहा आहिस्ता से
ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
कैसे पता चलेगा अगर सामना न हो
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
हम में और परिंदों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
धूप सी उम्र बसर करना है
इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
जब उस ने आने का इक दिन इधर इरादा किया
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
किसी ने भी उसे देखा नहीं है