अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
ये भी मुमकिन है कि अगले मोड़ पर दरिया मिले
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दिल सँभाले नहीं सँभलता है
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई