मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा
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नाकामी-ए-क़िस्मत का गिला छोड़ दिया है
कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई
मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा नहीं होता
अंदाज़-ए-ग़ज़ल आप का क्या ख़ूब है 'रज़्मी'
हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
मुक़ाबले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
मसअले भी मिरे हमराह चले आते हैं
शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है