ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा
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क़रीब आओ तो शायद समझ में आ जाए
मसअले भी मिरे हमराह चले आते हैं
मुक़ाबले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
याद ये किस की आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
नाकामी-ए-क़िस्मत का गिला छोड़ दिया है
अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा नहीं होता
फ़राज़-ए-दार पे इक दिन सजा के देख हमें
इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई