कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
तुझ को जीने की अदा दे के चला जाऊँगा
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नाकामी-ए-क़िस्मत का गिला छोड़ दिया है
शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है
मुक़ाबले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
याद ये किस की आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
क़रीब आओ तो शायद समझ में आ जाए
हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा नहीं होता
मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
अंदाज़-ए-ग़ज़ल आप का क्या ख़ूब है 'रज़्मी'