क़रीब आओ तो शायद समझ में आ जाए
कि फ़ासले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
फ़राज़-ए-दार पे इक दिन सजा के देख हमें
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
याद ये किस की आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
अंदाज़-ए-ग़ज़ल आप का क्या ख़ूब है 'रज़्मी'
मुक़ाबले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही