हमें दुनिया फ़क़त काग़ज़ का इक टुकड़ा समझती है
पतंगों में अगर ढल जाएँ हम तो आसमाँ छू लें
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अपने दराज़-क़द पे बहुत नाज़ था जिन्हें
मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
निगाहों के मनाज़िर बे-सबब धुंधले नहीं पड़ते
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
जो दश्त में मिला था मुझे इतना याद है
जुनूँ है ज़ेहन में तो हौसले तलाश करो
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
इतनी मुश्किल में कभी पहले तो जाँ आई न थी
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
घर किसी का भी हो जलता नहीं देखा जाता
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा