चोट खा कर भी मुस्कुराता हूँ
दर्द-ए-दिल से भी लुत्फ़ उठाता हूँ
दोस्त ही ख़ंदा-ज़न नहीं मुझ पर
ख़ुद भी अपनी हँसी उड़ाता हूँ
Anwar Masood
Allama Iqbal
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ता हद्द-ए-नज़र दमक रहे हैं ज़र्रे
सरहद-ए-होश से गुज़रता हूँ
रौनक़ बढ़ेगी रू-ए-नशात-ए-जमाल की
बीते हुए लम्हों का इशारा ले कर
तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
तिरा तज़्किरा सू-ब-सू क्यूँ करें हम
कैफ़ पर भी है कैफ़ का आलम
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
कश्मकश
महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ
बिजलियों की हँसी उड़ाने को
ले के दिल दर्द पाएदार दिया