तनाब-ए-ख़ेमा-ए-गुल थाम 'नासिर'
कोई आँधी उफ़ुक़ से आ रही है
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दिल धड़कने का सबब याद आया
अकेले घर से पूछती है बे-कसी
पल पल काँटा सा चुभता था
वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
ये भी क्या शाम-ए-मुलाक़ात आई
कहते हैं ग़ज़ल क़ाफ़िया-पैमाई है 'नासिर'
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
ये आप हम तो बोझ हैं ज़मीन का
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चलें
तिरे आने का धोका सा रहा है