उम्र भर की नवा-गरी का सिला
ऐ ख़ुदा कोई हम-नवा ही दे
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ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
आँच आती है तिरे जिस्म की उर्यानी से
गिरफ़्ता-दिल हैं बहुत आज तेरे दीवाने
ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
तेरी ज़ुल्फ़ों के बिखरने का सबब है कोई
मैं तो बीते दिनों की खोज में हूँ
ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
पल पल काँटा सा चुभता था
तन्हाई का दुख गहरा था
आराइश-ए-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो