जब कि तुझ बिन नहीं मौजूद कोई
अपने होने का यक़ीं कैसे करूँ
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तुझ से मिलने की इल्तिजा कैसी
उम्रों के बुझते मामूरे में
रुत ने रिवायत के रुख़ बदले हर मसऊद सऊद गया
घर वाले भी सोए हैं अभी शब भी घनी है
देखा क़द-ए-गुनाह पे जब इस को मुल्तफ़ित
बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है
इक ख़ित्ता-ए-ख़ूँ में कहीं दरिया के किनारे
शाह-बलूत के ऊपर देख
दिल मिटे प्यार की अपीलों पर
सूना लगा बग़ैर तिरे मुझ को सारा घर
यख़-बस्ता ठंडकों में उजाला जड़ा हुआ
दरिया पे टीकरी से परे ख़ानक़ाह थी