आती है याद सुब्ह-ए-मसर्रत की बार बार
ख़ुर्शीद आते आते उसे कल उठा तो ला
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मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
जिस की हसरत थी उसे पा भी चुके खो भी चुके
रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
ख़त्म करना चाहता हूँ पेच-ओ-ताब-ए-ज़िंदगी
रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
क्या करूँ ऐ दिल-ए-मायूस ज़रा ये तो बता
मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम